बचपन के संस्मरण---1972--
स्कूल के दिनों मे जैसे ही अंतिम परिणाम आता उसके बाद गर्मियों की छुट्टियाँ प्रारम्भ हो जाती थी । इन छुट्टियों में हम अगली कक्षा के लिए पुस्तकों के जुगाड़ में लग जाते थे । नई पुस्तक दिलवाने के लिए यदि घरवालो से कहते तो उनका एक ही जवाब होता ...'' नई क का करबा तू सीधे ही कलेक्टर बन जईबा ?''---- ऐसा जवाब सुनकर हम निरुत्तर हो जाते थे लेकिन यदि पढना है तो किताबों के लिए कुछ जुगाड़ तो करना ही पडेगा। सो हम से जो छात्र एक साल आगे होते थे उन्हीं की पुरानी किताबों को खरीदने हेतु रात दिन एक कर देते थे । इसके लिए महीनों पहले से ही ये पता करते रहते थे कि किस छात्र की किताब अच्छी स्थिति में है । फिर उन्हें आधे मूल्य पर खरीदने हेतु भाग दौड़ चालू कर देते थे । कई छात्र अपनी किताबों को बहुत ही करीने से कवर चढाकर रखते थे और कई लापरवाही से । अच्छी किताबों वाले के पास हमारे साथी पहले से ही जैक जुगाड़ लगाना प्रारम्भ कर देते थे ।
ऐसा ही एक छात्र था भगेलू ,जो बहुत ही कंजूस किस्म का था । वो सदैव थर्ड डिवीजन से पास होता, लेकिन पुस्तकों को बडी हिफाजत से रखता था । पास के कस्बे के अस्पताल के पीछे से इंजेक्शन की खाली शीशियों को इकट्ठा करके ले आता और साफ करके 5 पैसे के हिसाब से हमें स्याही भरने के लिए बेचता था । मेरी नजर उसकी किताबों को खरीदने पर ही थी । घरवालों से पैसे मांगे तो उन्होने बडी मुश्किल से 12 रुपये दिए पुस्तको के लिए , 3 रुपये मेरे पास थे, जो मैने खेतों में अनाज की बालियां बीनकर (फसल कटने के बाद गेहूं की कुछ बालियाँ खेत मे गिर जाती थी उसे हम इकट्ठा करके बेचते थे ) कमाए थे । इस प्रकार किताबो के लिए मेरा कुल बजट 15 रुपये था ।
मैं भगेलू के पास पहुंचा और उससे किताब बेचने का अनुरोध किया । उसने मुझसे छूटते ही कहा---
'' तोहरे बस क ना ह , जवन हमार किताब खरीद सका । नई जईसन ह, ज्यादा पैसा लेब।''
मैने कहा पहले टोटल करके तो बता । उसने सारी किताबे निकाली और उनका मूल्य जोडा जो कुल 32 रुपये हुआ और उसका आधा 16 रुपये हुआ परन्तु उसने मुझे स्पष्ट कह दिया कि 20 रुपये मे दूंगा । मै विचलित था क्योंकि सवाल 5 रुपये के बड़े अभाव का था । मैने उससे काफी अनुनय - विनय की , लेकिन वह टस से मस नही हुआ । हार मानकर मैने उस से कहा कि ..''' ठीक ह ले लीहा, लेकिन 5 रुपये एक महिने बाद देब ।''—इस पर वो सहमत हो गया और मैं किताबे लेकर घर आ गया ।
आते ही मैने हिन्दी की किताब निकाल कर उसमे कवितायेँ खोजनी प्रारम्भ की । अकस्मात मेरी दृष्टि पुस्तक के बीचोबीच रखे एक कागज पर चली गई । मैने उसे निकाला और पढ़ा तो वो एक प्रेम पत्र था जो उसने अपने साथ पढ़ने वाली किसी लड़की को लिखा था, लेकिन देने की शायद वो हिम्मत नही कर सका और पुस्तक मे ही अटका रह गया । पत्र का मजमून कुछ इस तरह था ... ई पत्र बडी हिम्मत करके लिख रहल हई। तोहके तोहरे माई क कसम है जो केहुके बतौलू ।आई लव यू।''----- मैने उसे आपदा कोष की तरह बडी हिफाजत से संभालकर सुरक्षित रख लिया ।
अगले ही दिन भगेलू मेरे पास आया और मीठी मीठी बातें करने लगा ।
'' यार प्रह्लाद , तुम्हे जो हिन्दी की पुस्तक दी है उसमे माखन लाल चतुर्वेदी की एक कविता है, वो मुझे बहुत पसन्द है लेकिन मैं उसे पूरी याद नही कर सका । ज़रा किताब लाना उसे मै लिखकर ले जाऊं । मै दौड़ कर किताब उठा लाया और उसे पकड़ा दी । उसने दो तीन बार किताब को गहनता से देखा लेकिन जो वह ढूंढ रहा था उसे तो मैने पहले ही अपने कब्ज़े में कर लिया था ।
भगेलू का मुंह लटक गया और कहने लगा...'' देख भाई प्रह्लाद , तू त जनतै हउआ ह कि हमार अब्बा केतना बुरा हौअन । मार जूतन के हमार हड्डी पसली तोड़ दिहै मरीहैं बीस जूता गिनिहें पांच । ऊ कागज के हमके वापिस दे दा ।'' मैंने भी अवसर की नाजुकता को देखकर कहा कि..'' अब त ऊ कागज तोहरे अब्बा के ही देब । जब सब दुनियां आधा मूल्य मे किताब देत ह तू हमके ठग देहले तब तनिको ना सोचले। ''
'' अब यार प्रह्लाद तू रुपया दु रुपया कम दे दा पर अईसन मत करा ।''
'' अब भगेलू तु ई कान से सुना चाहे वो कान से, तोहके ऊ कागज चाही त 5 रुपया छोड़े के पड़ी और बजारी में रेंगई साव के दुकानी से मिठाई भी खिआवै के पड़ी ।''
सुनकर भगेलू थोडी देर सोचता रहा और फिर बोला ..''अब तोहार मर्जी । चला बनिया के दुकान से तोहके भेली दिअवा देइं ।'' मैने कहा कि ..'' ना भाई ना भेली से तनिको काम ना चली अब त जलेबी से ही बात बनेगी ।''
भगेलू के पास कोई रास्ता नही था और वह मेरी शर्त के मुताबिक तैयार हो गया । बाद में मैने उसे वो बाद में मैने उसे वो चिट्ठी लौटा दी । उसने वो चिट्ठी मेरे सामने ही फाड दी ।
पिछले दिनो जब मैं गांव गया तो वही भगेलू मुझे मेहनाजपुर के बस स्टैंड पर मिल गया था ।उसके बेटे की शादी के लिए सामान खरीदने आया था । काफी देर गप शप और पुरानी बातें की और आखिर मे उस पांच रुपयेवाली बात पर हम दोनो एक गहन अट्टाहास में डूब गये ।
क्या आप को भी अपने बचपन की कोई ऐसी यादें हैं? जो दोस्ती के बंधन, बाल सुलभ मासूम बातचीत और साझा समझ के छोटे लेकिन गहन क्षणों को दर्शाती हों, जैसे भगेलू और उनकी क़ीमती किताबों की कहानी? कृपया साझा करें ।
प्रहलाद सिंह